Wednesday 27 July 2011

चाणक्य(भारतीय होने का बखूबी परिचय दिया है इन्होने!)

चाणक्य(भारतीय होने  का बखूबी परिचय दिया है इन्होने!)

चित्र:Chanakya (1).jpg
चाणक्य कौटिल्य नाम से भी विख्यात हैं। वे महान् सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। उन्होने नदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त
 मौर्य को राजा बनाया। वे राजनीति और कूटनीति के साक्षात् मूर्ति थे। उनका अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि
 का महान ग्रंन्थ है।
 अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में
रहते थे।उनके नाम पर एक धारावाहिक भा बना था जो दूरदर्शन पर १९९० के दशक में दिखाया जाता था ।चाणक्य या कहें कि 
विष्णुगुप्त अथवा कौटिल्य, ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेदों का गहन अध्ययन किया. क्या यह गौरव का विषय नहीं कि दुनियाँ
 के सबसे पुराने विश्वविद्यालय, तक्षशिला और नालन्दा भारतीय उपमहाद्वीप में थे. और हाँ, ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम 
५०० से ४०० वर्ष ईसा पूर्व की बात कर रहे हैं. तक्षशिला एक सुस्थापित शिक्षण संस्थान था और माना जाता है कि पाणिनी ने संस्कृत
 व्याकरण की रचना यहीं की थी. चाणक्य भी बाद में यहाँ नीतिशास्त्र के व्याख्याता हुए (कुशाग्र छात्र, है न!). ऐसा कहा जाता है कि वे
 व्यवहारिक उदाहरणों से पढ़ाते थे. यूनानी लोगों के तक्षशिला पर चढ़ाई करने कारण से वहाँ एक राजनैतिक उथल-पुथल मच गयी 
और चाणक्य को मगध में आकर बसना पड़ा. उन्हें नि:संदेह एक राजा के निर्माता के रूप में अधिक जाना जाता है. चंद्रगुप्त मौर्य
 विशेष रूप से उनकी सलाह मानते थे. शत्रुओं की कमज़ोरी को पहचाकर उसे अपने काम में लाने की विशिष्ट प्रतिभा के चलते 
चाणक्य हमेशा अपने शत्रुओं  पर हावी रहे. उन्होंने तीन पुस्तकों की रचना की- ‘अर्थशास्त्र‘, ‘नीतिशास्त्र’ तथा ‘चाणक्य नीति’
‘नीतिशास्त्र’ में भारतीय जीवन के तौर-तरीकों का विवरण है तो ‘चाणक्य नीति’ में उन विचारों का लेखा-जोखा है जिनमें चाणक्य 
विश्वास करते थे और जिनका वे पालन करते थे.राजा के निर्माता राष्ट्रीय नीतियों, रणनीतियों तथा विदेशी संबंधो पर लिखी गई 
‘अर्थशास्त्र’ उनकी सर्वाधिक विख्यात पुस्तक है. प्रबंधन की दृष्टि से एक राजा तथा प्रशासन की भूमिका तथा कर्तव्यों को यह पुस्तक 
स्पष्ट करती है. यह पुस्तक एक राज्य के सफल संचालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती है. उदाहरण के लिये यह न सिर्फ़
 आपदाओं तथा अनाचारों से निपटने की राह बताती है बल्कि अनुशासन तथा नीति-निर्धारण के तरीकों का भी उल्लेख करती है. इसी
 विषय पर लिखी एक और पुस्तक है ‘द प्रिंस‘ जो कि मैकियावेली द्वारा रचित है, हालांकि विषय समान होते हुए भी यह पुस्तक चाणक्य
 के ‘अर्थशास्त्र’ से सर्वथा भिन्न है. मैकियावेली पन्द्रहवीं शताब्दी के इतालवी राजनैतिक दार्शनिक थे. अपनी सत्ता को का़यम रखने के 
लिये एक महत्वाकांक्षी उत्तराधिकारी को क्या नीतियाँ अपनानी चाहिये, उनकी किताब इसी विषय पर केंद्रित है. उनके विचार अतिवादी
 माने जाते हैं क्योंकि उनके मतानुसार तानाशाही राज्य में स्थिरता बनाये रखने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है. शक्ति तथा सत्ता प्राप्ति को 
उन्होंने नैतिकता से भी महत्वपूर्ण माना है. लगभग २००० वर्षों के अंतराल वाली इन दो कृतियों की तुलना करना बेहद रोचक है
दुनियाँ मुख्यत: मैकियावेली को ही जानती है। भारतीय होने के नाते हम कम से कम इतना तो ही कर ही सकते है कि सर झुका कर 
उस महान शख्सियत को नमन करें जिसका नाम था - चाणक्य।चाणक्य की कुटिया पाटलिपुत्र के अमात्य आचार्य चाणक्य बहुत विद्वान
 न्यायप्रिय होने के साथ एक सीधे सादे ईमानदार  सज्जन व्यक्ति भी थे। वे इतने बडे साम्राज्य के महामंत्री होनेके बावजूद छपपर से
 ढकी कुटिया में रहते थे। एक आम आदमी की तरह उनका रहन-सहन था। एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राज दरबार में 
 पहुंचा राजनीति और कूटनय में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया। राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का
 समय मांगा। आचार्य ने कहा-आप रात को मेरे घर आ सकते हैं। राजदूत चाणक्य के व्यवहार से प्रसन्न हुआ। शाम को जब वह 
राजमहल परिसर में ’आमात्य निवास‘ के बारे में पूछने लगा। राज प्रहरी ने बताया- आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं। 
राजदूत ने साचा शायद महामंत्री का नगर के  बाहर सरोवर पर बना सुंदर महल होगा। राजदूत नगर के बाहर पहूंचा। एक नागरिक
 से पूछा कि चाणक्य कहा रहते है। एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए नागरिक ने कहा-देखिए, वह सामने महामंत्री की कुटिया है।
राजदूत आश्चर्य चकित रह गया। उसने कुटिया में पहुंचकर चाणक्य के पांव छुए और शिकायत की-आप जैसा चतुर महामंत्री एक 
कुटिया में रहता है। चाणक्य ने कहा-अगर म जनता की कडी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों से रहूंगा तो मेरे देश के 
नागरिक को कुटिया भी नसीब नहीं होगी।चाणक्य की ईमानदारी पर यूनान का राजदूत नतमस्तक हो गया।चाणक्य नीति-दर्पण 
नीतिवर्णन परत्व संस्कृत ग्रंथो में, चाणक्य-नीतिदर्पण का महत्वपूर्ण स्थान है । जीवन को सुखमय एवं ध्येयपूर्ण बनाने के लिए,
 नाना विषयों का वर्णन इसमें सूत्रात्मक शैली से सुबोध  रूप में प्राप्त होता है । व्यवहार संबंधी सूत्रों के साथ-साथ, राजनीति संबंधी
 श्लोकों का भी इनमें समावेश होता है । आचार्य चाणक्य भारत का महान गौरव है, और उनके इतिहास पर भारत को गर्व है । तो 
इससे पूर्व कि हम नीति-दर्पण की ओर बढें, चलिए पहले इस महान शिक्षक, प्रखर राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्रकार के बारे में थोड़ा 
जानने का प्रयास करें ।प्राचीन संस्कृत शास्त्रज्ञों की परंपरा में, आचार्य चणक के पुत्र विष्णुगुप्त-चाणक्य का स्थान विशेष है । वे 
गुणवान, राजनीति कुशल, आचार और व्यवहार में मर्मज्ञ, कूटनीति के सूक्ष्मदर्शी प्रणेता, और अर्थशास्त्र के विद्वान माने जाते हैं ।
वे स्वभाव से स्वाभिमानी, चारित्र्यवान तथा संयमी; स्वरुप से कुरूप; बुद्धि से तीक्ष्ण; इरादे के पक्के; प्रतिभा के धनी, युगदृष्टा और 
युगसृष्टा थे । कर्तव्य की वेदी पर मन की मधुर भावनाओं की बली देनेवाले वे धैर्यमूर्ति थे ।
चाणक्य का समय ई.स. पूर्व ३२६ वर्ष का माना जाता है । अपने निवासस्थान पाटलीपुत्र (पट़ना) से तक्षशीला प्रस्थान कर उन्होंने वहाँ
 विद्या प्राप्त की । अपने प्रौढ़ज्ञान से विद्वानों को प्रसन्न कर वे वहीं पर राजनीति के प्राध्यापक बने । लेकिन उनका जीवन, सदा
 आत्मनिरिक्षण में मग्न रहता था । देश की दुर्व्यवस्था देखकर उनका हृदय अस्वस्थ हो उठता; कलुषित राजनीति और सांप्रदायिक
 मनोवृत्ति से त्रस्त भारत का पतन उनसे सहन नहीं हो पाता था । अतः अपनी दूरदर्शी सोच से, एक विस्तृत योजना बनाकर, देश
 को एकसूत्र में बाँधने का असामान्य प्रयास उन्होंने किया ।भारत के अनेक जनपदों में वे घूमें । जनसामान्य से लेकर, शिक्षकों एवं
 सम्राटों तक में सोयी हुई राष्ट्र-निष्ठा को उन्होंने जागृत किया ।
 इस राजकीय एवं सांस्कृतिक क्रांति को स्थिर करने, अपने गुणवान और पराक्रमी शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर
 स्थापित किया । चाणक्य याने स्वार्थत्याग, निर्भीकता, साहस एवं विद्वत्ता की साक्षात् मूरत !मगध के महामंत्री होने पर भी वे 
सामान्य कुटिया में रहते थे । चीन के प्रसिद्ध यात्री फाह्यान ने यह देखकर जब आश्चर्य व्यक्त किया, तब महामंत्री का उत्तर था 
"जिस देश का महामंत्री (प्रधानमंत्री-प्रमुख) सामान्य कुटिया में रहता है, वहाँ के नागरिक भव्य भवनों में निवास करते हैं; पर जिस 
देश के मंत्री महालयों में निवास करते हैं,वहाँ की जनता कुटिया में रहती है । राजमहल की अटारियों में, जनता की पीडा का आर्तनाद
 सुनायी नहीं देता ।”चाणक्य का मानना था कि `बुद्धिर्यस्य बलं तस्य`। वे पुरुषार्थवादी थे; `दैवाधीनं जगत्सर्वम्` इस सिद्धांत को मानने
 के लिए कदापि तैयार नहीं थे । सार्वजनिन हित और महान ध्येय की पूर्ति में प्रजातंत्र या लोकशिक्षण अनिवार्य है, पर पर्याप्त नहीं 
ऐसा उनका स्पष्ट मत था । देश के शिक्षक, विद्वान और रक्षक – निःस्पृही, चतुर और साहसी होने चाहिए । 
स्वजीवन और समाजव्यवहार में उन्नत नीतिमूल्य का आचरण ही श्रेष्ठ है; किंतु, स्वार्थपरायण सत्तावान या वित्तवानों से, 
आवश्यकता पडने पर वज्रकुटिल बनना चाहिए – ऐसा उनका मत था । इसी कारण वे “कौटिल्य” कहलाये ।चाणक्य का व्यक्तित्व 
शिक्षकों तथा राजनीतिज्ञों के लिए किसी भी काल में तथा किसी भी देश में अनुकरणीय एवं आदर्श है । उनके चरित्र की महानता के 
पीछे, उनकी कर्मनिष्ठा, अतुलप्रज्ञा और दृढप्रतिज्ञा थे । वे मेधा, त्याग, तेजस्विता, दृढता, साहस एवं पुरुषार्थ के प्रतीक हैं । उनके
 अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत अर्वाचीन काल में भी उतने ही उपयुक्त हैं । चाणक्य-नीतिदर्पण ग्रंथ में, आचार्य ने अपने
 पूर्वजों द्वारा संभाली धरोहर का और अन्य वैदिक ग्रंथो का अध्ययन कर, सूत्रों एवं श्लोकों का संकलन किया है । उन्हें,आने वाले 
समय में सुसंस्कृत पर क्रमशः प्रस्तुत करने का हमें हर्ष है । स्मृतिरुप होने के कारण, कुछ एक रचनाओं को काल एवं परिस्थिति
अनुसार यथोचित न्याय और संदर्भ देने का प्रयास अनिवार्य होगा; अन्यथा आचार्य के कथन का अपप्रयोग हो पाना अत्यंत संभव है ।
 अस्तु ।मूल चाणक्य नीति आज से करीब 2300 साल पहले पहले पैदा हुए चाणक्य भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के पहले 
विचारक माने जाते हैं। पाटलिपुत्र (पटना) के शक्तिशाली नंद वंश को उखाड़ फेंकने और अपने शिष्य चंदगुप्त मौर्य को बतौर राजा 
स्थापित करने में चाणक्य का अहम योगदान रहा। ज्ञान के केंद्र तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य रहे चाणक्य राजनीति के चतुर
 खिलाड़ी थे और इसी कारण उनकी नीति कोरे आदर्शवाद पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान पर टिकी है। आगे दिए जा रहीं उनकी कुछ
 बातें भी चाणक्य नीति की इसी विशेषता के दर्शन होते हैं :- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे
 तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।- अगर कोई सांप 
जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन
 नहीं करना चाहिए।- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, 
यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए।
 लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त
 होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है,मगर इस सुख के 
साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यारपनपे नहीं,
 ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी
रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से
 मिले,उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर 
खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को 
अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है,उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ
 तले मर जाते हैं।- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को 
सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार
 और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल
 दिया।मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। 
इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि 
उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के
 उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से
 बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं
 कुछ अंश -
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता,सभी वनों में चंदन का वृक्ष 
नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और 
निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान
 दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का
 होना,प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और
 जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह
 पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा
 सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।
6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है।
 चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
7. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद
 में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत 
आवश्यक है।
8. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में
 रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी
 मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का 
कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों
 के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा
 होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं।इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं
 तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है,
 इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
14. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है,उसी प्रकार कर्ज से दबा 
व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य 
कभी नहीं भुला पाता।इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।
15. चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के 
पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस
 राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं 
करना चाहिए।
16. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है।उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो 
जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक
 वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
1७. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है,
 वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई 
इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
1८. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे 
व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।

चाणक्य की सीख

चाणक्य एक जंगल में झोपड़ी बनाकर रहते थे। वहां अनेक लोग उनसे परामर्श और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे। जिस जंगल 
में वह रहते थे, वह पत्थरों और कंटीली झाडि़यों से भरा था। चूंकि उस समय प्राय: नंगे पैर रहने का ही चलन था, इसलिए उनके 
निवास तक पहुंचने में लोगों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता था। वहां पहुंचते-पहुंचते लोगों के पांव लहूलुहान हो जाते थे।
एक दिन कुछ लोग उस मार्ग से बेहद परेशानियों का सामना कर चाणक्य तक पहुंचे। एक व्यक्ति उनसे निवेदन करते हुए बोला, 
‘आपके पास पहुंचने में हम लोगों को बहुत कष्ट हुआ। आप महाराज से कहकर यहां की जमीन को चमड़े से ढकवाने की व्यवस्था
 करा दें। इससे लोगों को आराम होगा। उसकी बात सुनकर चाणक्य मुस्कराते हुए बोले, ‘महाशय, केवल यहीं चमड़ा बिछाने से समस्या
 हल नहीं होगी। कंटीले व पथरीले पथ तो इस विश्व में अनगिनत हैं।ऐसे में पूरे विश्व में चमड़ा बिछवाना तो असंभव है। हां, यदि 
आप लोग चमड़े द्वारा अपने पैरों को सुरक्षित कर लें तो अवश्य ही पथरीले पथ व कंटीली झाडि़यों के प्रकोप से बच सकते हैं।’ 
वह व्यक्ति सिर झुकाकर बोला, ‘हां गुरुजी, मैं अब ऐसा ही करूंगा।’इसके बाद चाणक्य बोले,‘देखो, मेरी इस बात के पीछे भी गहरा सार है।
 दूसरों को सुधारने के बजाय खुद को सुधारो। इससे तुम अपने कार्य में विजय अवश्य हासिल कर लोगे। दुनिया को नसीहत देने वाला
 कुछ नहीं कर पाता जबकि उसका स्वयं पालन करने वाला कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंच जाता है।’ इस बात से सभी सहमत हो गए।
कौटिल्य अर्थशास्त्र पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत तथा पाश्चात्य देशों में हलचल-सी मच गई क्योंकि इसमें शासन-विज्ञान के
 उन अद्भुत तत्त्वों का वर्णन पाया गया, जिनके सम्बन्ध में भारतीयों को सर्वथा अनभिज्ञ समझा जाता था। पाश्चात्य विद्वान फ्लीट,
 जौली आदि ने इस पुस्तक को एक ‘अत्यन्त महत्त्वपूर्ण’ ग्रंथ बतलाया और इसे भारत के प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक
 साधन स्वीकार किया। इस पुस्तक की रचना आचार्य विष्णुगुप्त ने की, जिसे कौटिल्य और चाणक्य नामों से भी स्मरण किया जाता है।
 पुस्तक की समाप्ति पर स्पष्ट रूप से लिखा गया है।‘‘प्राय: भाष्यकारों का शास्त्रों के अर्थ में परस्पर मतभेद देखकर विष्णुगुप्त ने 
स्वयं ही सूत्रों को लिखा और स्वयं ही उनका भाष्य भी किया।’’ (15/1)साथ ही यह भी लिखा गया है:‘इस शास्त्र (अर्थशास्त्र) का प्रणयन
 उसने किया है, जिसने अपने क्रोध द्वारा नन्दों के राज्य को नष्ट करके शास्त्र, शस्त्र और भूमि का उद्धार किया।’ (15/1)विष्णु पुराण 
में इस घटना की चर्चा इस तरह की गई है: ‘‘महापदम-नन्द नाम का एक राजा था। उसके नौ पुत्रों ने सौ वर्षों तक राज्य किया। उन नन्दों
 को कौटिल्य नाम के ब्राह्मण ने मार दिया। उनकी मृत्यु के बाद मौर्यों ने पृथ्वी पर राज्य किया और कौटिल्य ने स्वयं प्रथम चन्द्रगुप्त 
का राज्याभिषेक किया। चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार हुआ और बिन्दुसार का पुत्र अशोकवर्धन हुआ।’’ (4/24)‘नीतिसार’ के कर्ता कामन्दक
 ने भी घटना की पुष्टि करते हुए लिखा है: ‘‘इन्द्र के समान शक्तिशाली आचार्य विष्णुगुप्त ने अकेले ही वज्र-सदृश अपनी मन्त्र-शक्ति
 द्वारा पर्वत-तुल्य महाराज नन्द का नाश कर दिया और उसके स्थान पर मनुष्यों में चन्द्रमा के समान चन्द्रगुप्त को पृथ्वी के शासन 
पर अधिष्ठित किया।’’इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि विष्णुगुप्त और कौटिल्य एक ही व्यक्ति थे। ‘अर्थशास्त्र’ में ही द्वितीय अधिकरण के
 दशम अध्याय के अन्त में पुस्तक के रचयिता का नाम ‘कौटिल्य’ बताया गया है:‘‘सब शास्त्रों का अनुशीलन करके और उनका प्रयोग
 भी जान करके कौटिल्य ने राजा (चन्द्रगुप्त) के लिए इस शासन-विधि (अर्थशास्त्र) का निर्माण किया है।’’ (2/10)पुस्तक के आरम्भ में
 ‘कौटिल्येन कृतं शास्त्रम्’ तथा प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘इति कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे’लिखकर ग्रन्थकार ने अपने ‘कौटिल्य नाम को अधिक
 विख्यात किया है। जहां-जहां अन्य आचार्यों के मत का प्रतिपादन किया है, अन्त में ‘इति कौटिल्य’ अर्थात् कौटिल्य का मत है-इस तरह
 कहकर कौटिल्य नाम के लिए अपना अधिक पक्षपात प्रदर्शित किया है। परन्तु यह सर्वथा निर्विवाद है कि विष्णुगुप्त तथा कौटिल्य 
अभिन्न व्यक्ति थे। उत्तरकालीन दण्डी कवि ने इसे आचार्य विष्णुगुप्त नाम से यदि कहा है, तो बाणभट्ट ने इसे ही कौटिल्य नाम से 
पुकारा है। दोनों का कथन है कि इस आचार्य ने ‘दण्डनीति’ अथवा ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।पञ्चतन्त्र में इसी आचार्य का नाम चाणक्य
 दिया गया है, जो अर्थशास्त्र का रचयिता है। कवि विशाखदत्त-प्रणीत सुप्रसिद्ध नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में चाणक्य को कभी कौटिल्य तथा
 कभी विष्णुगुप्त नाम से सम्बोधित किया गया है। कहते हैं कि अन्तिम महाराज नन्द (योगानन्द) ने अपनी मन्त्री शकटार को श्राद्ध
 के लिए ब्राह्मणों को एकत्र करने के लिए कहा। शकटार राजा द्वारा पूर्व में किए गए किसी अपमान से पीड़ित था। उसने एक ऐसे 
क्रोधी ब्राह्मण को ढूंढ़ना शुरू किया, जो श्राद्ध में उपस्थित होकर राजा को अपने ब्रह्मतेज से भस्म कर दे। खोज करते हुए उसने एक
 कुरूप, कृष्णकाय ब्राह्मण को देखा, जो किसी जंगल में कांटेदार झाड़ियों को काट रहा था और उनकी जड़ों में खट्टा दही डाल रहा था।
 शकटार द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर उस ब्राह्मण ने कहा, ‘‘इन झाड़ियों के कांटों के चुभने से मेरे पिता का देहान्त हुआ अत: 
मैं इन्हें समूचा नष्ट कर रहा हूं।’’इस क्रोधी ब्राह्मण को शकटार ने उपयुक्त, निमन्त्रण-योग्य ब्राह्मण जाना और उससे महाराज नन्द 
द्वारा आयोजित ब्रह्मभोज में उपस्थित होने की प्रार्थना की। ब्राह्मण ने इस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया।नियत समय पर
 जब वह ब्राह्मण ब्रह्मभोज के लिए उपस्थित हुआ, मन्त्री शकटार ने आदरपूर्वक उसे सर्वप्रथम आसन पर विराजमान किया। ब्रह्मभोज
 आरम्भ होने पर जब महाराज नन्द ब्राह्मणों का दर्शन करने के लिए आए तो सर्वप्रथम एक कुरूप कृष्णकाय, भीषण व्यक्ति को 
देखकर अति क्रुद्ध होकर कहने लगे, ‘‘इस चाण्डाल को ब्रह्मभोज में क्यों लाया गया है ?’’ ब्राह्मण इस अपमान को सहन न कर 
सका और उसने भोजन छोड़कर तत्काल अपनी शिखा खोलते हुए यह प्रतिज्ञा की : ‘‘जब तक मैं नन्द वंश को समूल नष्ट करके
 अपने इस अपमान का बदला नहीं ले लूंगा, तब तक मैं शिखा-बन्धन न करूंगा।’’ ऐसी गर्जना करता हुआ वह ब्राह्मण ब्रह्मभोज
 से उठकर चला गया। शकटार अपनी इच्छा को पूर्ण होता हुआ देखकर अति प्रसन्न हुआ।
इसी ब्राह्मण ने, जो चाणक्य था, अपनी मन्त्रशक्ति द्वारा अकेले ही नन्द राजाओं का नाश किया और मौर्य चन्द्रगुप्त को, जो 
स्वयं अपने पिता नन्द द्वारा अपमानित होकर राज्य पर अधिकार करने की चिन्ता में था, भारतवर्ष के प्रथम सम्राट के रूप में
 प्रतिष्ठित किया। भारत उस समय जनपदों में बंटा हुआ था, जिनपर छोटे-छोटे राजा लोग शासन करते थे। चाणक्य ने उन सबको
 मौर्य चन्द्रगुप्त के अधीन किया और पहली बार भारत को एक साम्राज्य में संगठित किया। इसी साम्राज्य को चन्द्रगुप्त के पौत्र 
सम्राट अशोक ने धर्म-विजयों द्वारा अफगानिस्तान से दक्षिण तक और बंगाल से काठियावाड़ तक विस्तृत किया। इन्हीं मौर्य सम्राटों 
द्वारा वस्तुत: भारत का एकराष्ट्र रूप सर्वप्रथम विकसित हुआ, जिसका मूल श्रेय उसी नीति-विशारद, कूटनीतिज्ञ, दूरद्रष्टा ब्राह्मण 
को है, जिसे कौटिल्य, चाणक्य या विष्णुगुप्त नामों से कहा गया है।‘अर्थशास्त्र’ की रचना ‘शासन-विधि’ के रूप में प्रथम मौर्य सम्राट
 चन्द्रगुप्त के लिए की गई। अत: इसकी रचना का काल वही मानना उचित है, जो सम्राट चन्द्रगुप्त का काल है। पुरातत्त्ववेत्ता
 विद्वानों ने यह काल 321 ई.पू. से 296 ई.पू.तक निश्चित किया है।कई अन्य विद्वान सम्राट सेण्ड्राकोटस (जो यूनानी इतिहास में 
सम्राट चन्द्रगुप्त का पर्यायवाची है) के आधार पर निश्चित की हुई इस तिथि को स्वीकार नहीं करते।इस‘अर्थशास्त्र’ का विषय क्या है ?
 जैसे ऊपर कहा गया है-इसका मुख्य विषय शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है: ‘‘कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधि: कृत:।’’ 
इन शब्दों से स्पष्ट है कि आचार्य ने इसकी रचना राजनीति-शास्त्र तथा विशेषतया शासन-प्रबन्ध की विधि के रूप में की। अर्थशास्त्र
 की विषय-सूची को देखने से (जहां अमात्योत्पत्ति, मन्त्राधिकार, दूत-प्रणिधि,अध्यक्ष-नियुक्ति, दण्डकर्म, षाड्गुण्यसमुद्देश्य,
राजराज्ययो: व्यसन-चिन्ता, बलोपादान-काल, स्कन्धावार-निवेश, कूट-युद्ध, मन्त्र-युद्ध इत्यादि विषयों का उल्लेख है) यह सर्वथा 
प्रमाणित हो जाता है कि इसे आजकल कहे जाने वाले अर्थशास्त्र (इकोनोमिक्स) की पुस्तक कहना भूल है। प्रथम अधिकरण के 
प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे दण्ड नीति नाम से सूचित किया शुक्राचार्य ने दण्डनीति को इतनी महत्त्वपूर्ण विद्या बतलाया है
 कि इसमें अन्य सब विद्याओं का अन्तर्भाव मान लिया है-क्योंकि ‘शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते’ की उक्ति के अनुसार 
शस्त्र (दण्ड) द्वारा सुशासित तथा सुरक्षित देश में ही वेद आदि अन्य शास्त्रों की चिन्ता या अनुशीलन हो सकता है। अत: दण्डनीति को
 अन्य सब विद्याओं की आधारभूत विद्या के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है, और वही दण्डनीति अर्थशास्त्र है।जिसे आजकल 
अर्थशास्त्र कहा जाता है, उसके लिए 'वार्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि यह शब्द पूर्णतया अर्थशास्त्र का द्योतक नहीं। 
कौटिल्य ने वार्ता के तीन अंग कहे हैं-कृषि, वाणिज्य तथा पशु-पालन, जिनसे प्राय: वृत्ति या जीविका का उपार्जन किया जाता था।
 मनु, याज्ञवल्क्य आदि शास्त्रकारों ने भी इन तीन अंगों वाले वार्ताशास्त्र को स्वीकार किया है। पीछे शुक्राचार्य ने इस वार्ता में कुसीद
 (बैंकिग) को भी वृत्ति के साधन-रूप में सम्मिलित कर दिया है। परन्तु अर्थशास्त्र को सभी शास्त्रकारों ने दण्डनीति, राजनीति अथवा
 शासनविज्ञान के रूप में ही वर्णित किया है। अत: ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को राजनीति की पुस्तक समझना ही ठीक होगा न कि 
सम्पत्तिशास्त्र की पुस्तक। वैसे इसमें कहीं-कहीं सम्पत्तिशास्त्र के धनोत्पादन, धनोपभोग तथा धन-विनिमय, धन-विभाजन
आदि विषयों की भी प्रासंगिक चर्चा की गई है।
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण का प्रारम्भिक वचन इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने वाला है:
पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्ये: प्रस्तावितानि,
प्रायश: तानि संहृत्य एकमिदमर्थशास्त्र कृतम्।
अर्थात्-प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने अर्थशास्त्र लिखे हैं, प्रायः उन सबका सार लेकर 
इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है।यह उद्धरण अर्थशास्त्र के विषय को जहां स्पष्ट करता है, वहां इस सत्य को भी प्रकाशित
 करता है
कि ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ से पूर्व अनेक आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों
 का प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों का 
प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों तथा उनके सम्प्रदायों के कुछ नामों का निर्देशन ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में किया गया है, यद्यपि 
उनकी कृतियां आज उपलब्ध भी नहीं होतीं। ये नाम निम्नलिखित है:
(1) मानव-मनु के अनुयायी
(2) बार्हस्पत्य-बृहस्पति के अनुगामी
(3) औशनस-उशना अथवा शुक्राचार्य के मतानुयायी
(4) भारद्वाज (द्रोणाचार्य)
(5) विशालाक्ष
(6) पराशर
(7) पिशुन (नारद)
(8) कौणपदन्त (भीष्म)
(9) वाताव्याधि (उद्धव)
(10) बाहुदन्ती-पुत्र (इन्द्र)।
अर्थशास्त्र के इन दस सम्प्रदायों के आचार्यों में प्राय: सभी के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ ज्ञात है, परन्तु विशालाक्ष के बारे में बहुत 
कम परिचय प्राप्त होता है। इन नामों से यह तो अत्यन्त स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र के प्रति अनेक महान विचारकों तथा
 दार्शनिकों का ध्यान गया और इस विषय पर एक उज्जवल साहित्य का निर्माण हुआ। आज वह साहित्य लुप्त हो चुका है। अनेक
 विदेशी आक्रमणों तथा राज्यक्रान्तियों के कारण इस साहित्य का नाम-मात्र शेष रह गया है, परन्तु जितना भी  साहित्य अवशिष्ट
 है वह एक विस्तृत अर्थशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है।‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में इन पूर्वाचार्यों के विभिन्न मतों का स्थान-स्थान
 पर संग्रह किया गया है और उनके शासन-सम्बन्धी सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है।इस अर्थशा्स्त्र में एक ऐसी
 शासन-पद्धति का विधान किया गया है जिसमें राजा या शासक प्रजा का कल्याण सम्पादन करने के लिए शासन करता है। राजा
 स्वेच्छाचारी होकर शासन नहीं कर सकता। उसे मन्त्रिपरिषद् की सहायता प्राप्त करके ही प्रजा पर शासन करना होता है।
 राज्य-पुरोहित राजा पर अंकुश के समान है, जो धर्म-मार्ग से च्युत होने पर राजा का नियन्त्रण कर सकता है और उसे कर्तव्य-पालन
 के लिए विवश कर सकता है।सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का जो स्वरूप कौटिल्य को अभिप्रेत है, वह ‘अर्थशास्त्र’ के निम्नलिखित वचन 
से स्पष्ट है-प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्। नात्मप्रियं प्रियं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं प्रियम्।। (1/19)अर्थात्-प्रजा के सुख में
 राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
अमित राय ...........

Wednesday 13 July 2011

Karara thappad

13/7/2011 mumbai pe hamala...
abhi 2-3 saal pahle huye hamlo ko kaun bhula paya hai jo
2008 me jaypur,bangalore,ahmadabad,delhi,gujrat,malegaon
,aur asam me atankiyo ne apne mansubo me kamyabi hasil
ki thi.isase pahle we akshar dham mandir,sansad bhawan
etc. jagaho pe bhi hamla kiye the.lekin kumbhkarn ki nind so rahi
sarkar kab tak jagegi ,logo ko uss sunhare din ka intzar hoga...
aur aaj fir mumbai me jo kuchh bhi hua wo shidhe hamare
suraksha karno par sawaliya nishan hai...
jab ek ghatna hoti hai to sarkar , janta se unche wade karti hai
ki unke khilaf kadi se kadi karyawahi ki jayegi, lekin samay
gujarne ke sath hi ye sab baate gujar jati hai,aur fir ek aur dhamaka....

apko to yad hoga jab America me 9/11 hamala hua tha...lekin kya
uske baad koi hamala hua America pe ????....
aur aaj ham ek ujjwal , akhand aur viksit bharat ki kalpana liye huye
security ke mamle me America se compare karte hai,lekin in  atnkiyo
ka kya kare???